मकाँ मेरा अज़ल से ढूँढती फिरती थी वीरानी निहायत शौक़ से की दिल ने रंज-ओ-ग़म की मेहमानी क़रार उस को नहीं मिलता सिंघार उस का नहीं बनता मिरे दिल से तिरे गेसू ने सीखी है परेशानी ख़ता-ए-फ़ाश है हम ने जफ़ा को क्यूँ जफ़ा समझा क़यामत तक न जाएगी हमारी ये पशेमानी बताएँ क्या तुम्हारी इक नहीं से हम पे क्या गुज़री उमीदें थीं हज़ारों हाए जिन पर फिर गया पानी अदू के क़ौल की तुम ने हमेशा पासदारी की हमारी बात लेकिन आज तक इक भी नहीं मानी नज़र आता है आसाँ सब जिसे दुश्वार कहते हैं तरीक़-ए-इश्क़ में हर एक दुश्वारी है आसानी मज़ा देता नहीं 'हाफ़िज़' रुख़-ओ-गेसू का नज़्ज़ारा मिसाल-ए-आईना जब तक न हो आँखों में हैरानी