पाया कोई शजर न कोई आसरा लगा वो धूप थी कि अपना ही साया ख़ुदा लगा घबरा के बाम-ओ-दर के सुलगते सुकूत से झाँका ही था गली में कि संग-ए-सदा लगा झाड़ी जो आग चेहरों की रंगत बदल गई उस के दुखों का ज़िक्र सभी को बुरा लगा देखा उसे तो अक्स-ए-तमन्ना चमक उठे इस शहर-ए-संग में वो मुझे आइना लगा सहरा को देर से थी किसी अब्र की तलाश पाया मुझे तो वो मिरे सीने से आ लगा कितना बदल गया है वो ज़ुल्फ़ें तराश कर देखा जो दूर से तो कोई दूसरा लगा छूते ही उस को गुंचा-ए-एहसास खिल उठे 'राशिद' थके बदन को वो मौज-ए-सबा लगा