मक़्दूर क्या मुझे कि कहूँ वाँ कि याँ रहे हैं चश्म-ओ-दिल घर उस के जहाँ चाहे वाँ रहे मिस्ल-ए-निगाह घर से न बाहर रखा क़दम फिर आए हर तरफ़ ये जहाँ के तहाँ रहे ने बुत-कदा से काम न मतलब हरम से था महव-ए-ख़याल-ए-यार रहे हम जहाँ रहे जिस के कि हो नक़ाब से बाहर शुआ-ए-हुस्न वो रू-ए-आफ़्ताब ख़जिल कब निहाँ रहे आए तो हो प दिल को तसल्ली हो तब मिरे इतना कहो कि आज न जावेंगे हाँ रहे हस्ती ही में है सैर-ए-अदम उस को याँ जिसे फ़िक्र-ए-मियान-ए-यार ओ ख़याल-ए-दहाँ रहे ग़ीबत ही में है उस की हमारा ज़ुहूर याँ वो जल्वा-गर जब आगे हुआ हम कहाँ रहे 'बेदार' ज़ुल्फ़ खींचे इधर चश्म-ए-यार उधर हैराँ है दिल कहाँ न रहे किस के हाँ रहे