मक़ाम-ए-शौक़ से आगे भी इक रस्ता निकलता है कहें क्या सिलसिला दिल का कहाँ पर जा निकलता है मिज़ा तक आता जाता है बदन का सब लहू खिंच कर कभी क्या इस तरह भी याद का काँटा निकलता है दुकान-ए-दिल बढ़ाते हैं हिसाब-ए-बेश-ओ-कम कर लो हमारे नाम पर जिस जिस का भी जितना निकलता है अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई अभी से क्या बताएँ हम कि वो कैसा निकलता है मियान-ए-शहर हैं या आइनों के रू-ब-रू हैं हम जिसे भी देखते हैं कुछ हमीं जैसा निकलता है ये दिल क्यूँ डूब जाता है उसी से पूछ लूँगा मैं सितारा शाम-ए-हिज्राँ का इधर भी आ निकलता है दिल-ए-मुज़्तर वफ़ा के बाब में ये जल्द-बाज़ी क्या ज़रा रुक जाएँ और देखें नतीजा क्या निकलता है
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