माना कि सितारे सर-ए-अफ़्लाक बहुत हैं हम को भी हमारे ख़स-ओ-ख़ाशाक बहुत हैं खिलते हैं किधर गुल दिल-ए-सद-चाक बहुत हैं दामन हैं कहाँ दीदा-ए-नमनाक बहुत हैं इतना न हँसो साहब-ए-इदराक बहुत हैं आहिस्ता चलो लोग तह-ए-ख़ाक बहुत हैं मिटने को तो मिट जाते हैं अरबाब-ए-मोहब्बत इक्सीर हैं इस राह में कम ख़ाक बहुत हैं जिस रंग में चाहा तुझे उस रंग में देखा लम्हे तिरी फ़ुर्क़त के तरब-नाक बहुत हैं उन को भी 'जमील' अपने मुक़द्दर से गिला है वो लोग जो सुनते थे कि चालाक बहुत हैं