माना रह-ए-हयात में तन्हा हयात है महसूस हो रहा है कोई साथ साथ है क्या ग़म बिछड़ गया हूँ अगर कारवाँ से मैं तुम साथ हो तो साथ मिरे काएनात है वो मुस्कुरा दिए तो है आलम ही दूसरा रौशन मिरी हयात की तारीक रात है शायद है मुंतशिर अभी शीराज़ा-ए-वजूद क्यों वर्ना आदमी से गुरेज़ाँ हयात है मैं हादसात-ए-दहर को इल्ज़ाम कैसे दूँ अपनी तबाहियों में ख़ुद अपना ही हाथ है दो घूँट तू भी चख ले कि हो जाए ला-ज़वाल ऐ मौत मेरे हाथ में जाम-ए-हयात है काँटे मिले किसी को किसी को मिले हैं फूल यारो ये अपने अपने मुक़द्दर की बात है दस्त-ए-ख़िज़ाँ बहार को छूता नहीं 'नशात' तुम जिस को मौत कहते हो वो भी हयात है