मिरा वजूद समुंदर नहीं मैं क़तरा हूँ हर एक मौज की आग़ोश में मचलता हूँ मैं मुश्त-ए-ख़ाक हूँ गर्द-ओ-ग़ुबार जैसा हूँ तमाम वुसअ'त-ए-आलम पे फिर भी छाया हूँ क़ज़ा-ओ-क़द्र का मंज़र मिरी निगाह में है हयात-वर हूँ अजल से नज़र मिलाता हूँ ये दहशतों के छलावे ये आफ़तों के पहाड़ ख़ुदा का शुक्र कि इस दौर में भी ज़िंदा हूँ उड़ाइए न हवाओं में मेरी बातों को सदा-ए-वक़्त हूँ मैं वक़्त का तक़ाज़ा हूँ कोई भी रूप हो पहचान लूँगा मैं तुझ को मैं काएनात की हर चीज़ से शनासा हूँ अज़ल से है तू मिरे इल्म में की तू क्या है बता सके तो बता दे मुझे कि मैं क्या हूँ दिलों में उतरें न क्यों सब के मेरे शेर 'नशात' जो बात कहता हूँ मैं तजरबे की कहता हूँ