मनाज़िर-ए-शब-ए-रफ़्ता ख़याल-ओ-ख़्वाब हुए वो अश्क थे कि सितारे सभी ख़राब हुए वो ना-ख़ुदा कि ख़ुदाई का जिन को दा'वा था सफ़ीने उन की हिमाक़त से ज़ेर-ए-आब हुए हम अहल-ए-दर्द ज़माने के हाथ क्या आते कि हम तो अपने लिए भी न दस्तियाब हुए तलाश-ए-जाम-ए-तरब में कहाँ कहाँ न गए पिए बग़ैर भी हम तो बहुत ख़राब हुए हम उन के ऐब को क्या और क्यूँ अयाँ करते जो बे-ज़मीर थे वो ख़ुद ही बे-नक़ाब हुए फ़रेब ही से नवाज़ा है उन रफ़ीक़ों ने मिरी जनाब में आ कर जो बारयाब हुए तमाम उम्र मज़ाक़-ए-जुनूँ जो रखते थे रह-ए-ख़िरद में वही लोग कामयाब हुए हमारा सब्र है बे-इंतिहा तो हैरत क्या कि 'लैस' हम पे सितम भी तो बे-हिसाब हुए