तुम्हारे रस्ते से हट गए हैं हम अपनी जानिब पलट गए हैं वो जिन की शाख़ों पे झूलते थे शजर वो गाँव के कट गए हैं सभी का क़िबला तो एक है पर ये लोग फ़िर्क़ों में बट गए हैं हुआ है किस से गुनाह बादल बग़ैर बरसे ही छट गए हैं ये कैसी वहशत है लोग 'शाफ़ी' घरों में अपने सिमट गए हैं