मंज़िलों के बा'द दिल उस राज़ का महरम हुआ

मंज़िलों के बा'द दिल उस राज़ का महरम हुआ
दर-हक़ीक़त वो ख़ुशी थी नाम जिस का ग़म हुआ

पेश-ए-आईना सँवरने में बदल कर ज़ाविए
तुम ने जिस आलम को देखा इक अलग आलम हुआ

उन के गेसू हैं ज़माने पर मुकम्मल तब्सिरा
बारहा आरास्ता हो कर जहाँ बरहम हुआ

जज़्बा-ए-हमदर्दी-ए-उल्फ़त तिरा मशकूर हूँ
जब किसी की आँख भीगी मेरा दामन नम हुआ

चश्म-ए-साक़ी से गिरा जाता है ज़र्फ़-ए-मय-कशाँ
तोड़ दें साग़र जिन्हें एहसास-ए-बेश-ओ-कम हुआ

कितने ख़ाके थे हयात-ए-कामराँ के ज़ेहन में
दिल तो इस आलम में भी मसरूर था जब ग़म हुआ

शोर-ए-तहसीन-ए-सुख़न की रौ बहाने आई थी
ज़ेब-ए-लब 'मानी' के मन आनम कि मन दानम हुआ


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