शाइ'री हासिल-ए-दीवानगी-ए-दिल तो नहीं नर्म हल्क़े तिरी ज़ुल्फ़ों के सलासिल तो नहीं क़ौस-ए-अबरू ख़म-ए-गेसू शिकन-ए-पेशानी आज भी इश्क़ के पेचीदा मसाइल तो नहीं इक झलक दूर से दिखला के वो छुप जाते हैं संग-ए-मील आए हैं कुछ राह में मंज़िल तो नहीं तेज़-रौ चाँद घटाओं में तह-ओ-बाला है मुज़्तरिब कोई सफ़ीना पए साहिल तो नहीं तिश्नगी में नज़र आते हैं सराब-ए-सहरा हर नज़र पर ये गुमाँ है कोई माइल तो नहीं फ़ासले तय न हुए राह-नवर्दी के बग़ैर गामज़न जानिब-ए-रहरव कोई मंज़िल तो नहीं क्यूँ न ग़ाफ़िल हो फ़राएज़ से ज़माना 'मानी' कम यहाँ वक़्त गुज़ारी के मशाग़िल तो नहीं