किसी तौर हो न पिन्हाँ तिरा रंग-ए-रू-सियाही वो सब आँखें बुझ चुकी हैं कि जो दें मिरी गवाही हो नसीब हर किसी को कहाँ मंज़िल-ए-मोहब्बत कि उजड़ती जाएँ राहें कि बिखरते जाएँ राही तिरे नूर पर फ़िदा हूँ मगर इस क़दर फ़िदा हूँ मुझे देख ही न पाए ये जहाँ की कम-निगाही मैं जो आह भर रहा हूँ तुझे याद कर रहा हूँ कि तिरे बग़ैर मैं ने कभी ज़िंदगी न चाही कोई याद हम-नफ़स हो जो मिरे लिए क़फ़स हो कि अज़ल से जिस तरह है ये जहान-ए-आब-ओ-माही यही ज़िंदगी गुलिस्ताँ यही ज़िंदगी है ज़िंदाँ इसी ज़िंदगी से मैं ने यूँही दोस्ती निबाही सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ कि डकैत बन चुके हैं कई शहर के सिपाही