मंज़र कई बारिश से ज़मीं पर उतर आए पेड़ों की तरह लोगों के चेहरे निखर आए मोहकम न ज़मीं से हो तअ'ल्लुक़ ही जड़ों का उस पेड़ पे आए भी तो कैसे समर आए पस्पाई नहीं है तो है पछतावा यक़ीनन हम लोग जो मंज़िल से भी आगे गुज़र आए शायद किसी महरूमी का इज़हार हुआ है मज़मून मोहब्बत के जो शे'रों में धर आए मख़्लूक़ समझ बैठे न इस को कोई तैराक जो सत्ह पे पानी की कभी लाश उभर आए हो कर नज़र-अंदाज़ जिया कब 'वली' तेरा कहना वो सरापा-ए-तजस्सुस अगर आए