ख़ुशबू-ए-पैरहन से सुलगते रहे दिमाग़ आई शब-ए-फ़िराक़ तो गुल हो गए चराग़ दिल की लगी भड़क के निगाहों तक आ गई पलकों पे शाम-ए-वस्ल जलाए हैं दिल के दाग़ उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से हंगाम-ए-नाव-नोश फूटा वो सैल-ए-नूर कि लौ दे उठे अयाग़ वो गुल खिलें कि जिन की महक ला-ज़वाल हो इस एक दिन में हम ने सजाए हैं कितने बाग़ आख़िर खुला कि तू है मिरे घर की रौशनी यूँ तो तिरे बग़ैर भी जलते रहे चराग़ जब चश्म-ओ-दिल बुझे तो शबिस्तान-ए-शौक़ में हम ने हथेलियों पे जलाए हैं शब चराग़ जो वादी-ए-जमाल में गुम हो गए 'जमील' अपनी तलब के साथ ही उन का भी कुछ सुराग़