मंज़र की दीवार के पीछे इक मंज़र काली चादर से मुँह ढाँपे इक मंज़र मैं जैसे ही इक मंज़र तख़्लीक़ करूँ आ कर फ़ौरन उस को काटे इक मंज़र चेहरा पढ़ना चाहूँ तो ओझल हो जाए दूर खड़ा फिर हाथ हिलाए इक मंज़र इक मंज़र चाक़ू से गूदे जिस्म मिरा फिर आ कर ज़ख़्मों को चाटे इक मंज़र इक मंज़र में साँप गले से आ लिपटे फिर रग रग में ज़हर उतारे इक मंज़र बीच भँवर सुराख़ों वाली इक कश्ती मुझे मिरी पहचान कराए इक मंज़र कब तक आँखें नीची कर के गुज़रोगे आते जाते राह में टोके इक मंज़र धरती और आकाश परेशाँ दोनों हैं एक सा आलम ऊपर नीचे इक मंज़र हो सकता है इक मंज़र का हो जाऊँ आ कर आँखों में चुभ जाए इक मंज़र