मंज़र से हैं न दीदा-ए-बीना के दम से हैं सब मोजज़े तिलिस्म-ए-तमाशा के दम से हैं मिट्टी तो सामने का हवाला है और बस कूज़े में जितने रंग हैं दरिया के दम से हैं क्या ऐसी मंज़िलों के लिए नक़्द-ए-जाँ गंवाएँ जो ख़ुद हमारे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा के दम से हैं ये सारी जन्नतें ये जहन्नम अज़ाब ओ अज्र सारी क़यामतें इसी दुनिया के दम से हैं हम सारे यादगार-ए-ज़मीन-ओ-ज़माना लोग इक साहब-ए-ज़मीन-ओ-ज़माना के दम से हैं