मंज़र शमशान हो गया है दिल क़ब्रिस्तान हो गया है इक साँस के बा'द दूसरी साँस जीना भुगतान हो गया है छू आए हैं हम यक़ीं की सरहद जिस वक़्त गुमान हो गया है सरगोशियों की धमक है हर-सू ग़ुल कानों-कान हो गया है वो लम्हा हूँ मैं कि इक ज़माना मेरे दौरान हो गया है सौ नोक-पलक पलक-झपक में उक़्दा आसान हो गया है मंज़िल वो ख़म-ए-सफ़र है जिस पर चोरी सामान हो गया है इक मरहला-ए-कशाकश-ए-फ़न वज्ह-ए-इम्कान हो गया है काग़ज़ पे क़लम ज़रा जो फिसला इज़हार-ए-बयान हो गया है पैदा होते ही आदमी को लाहक़ निस्यान हो गया है पीली आँखों में ज़र्द सपने शब को यरक़ान हो गया है सौदे में ग़ज़ल के फ़ाएदा 'साज़' कैसा नुक़सान हो गया है