लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों ये आँख जैसे मिरी रौशनी से ख़ाली हों ये क्या ज़रूरी है हम सारी उम्र साथ रहें नहीं ये बात कि क़द्रें ये ला-ज़वाली हों न जाने कौन पस-ए-चश्म मर चुका होगा वो आँखें जैसे किसी मक़बरे की जाली हों सदा से हैं किसी नादीदा गूँज की ताबे ये भेड़ें सब्ज़ पहाड़ों ने जैसे पा ली हों है घाटी घाटी कोई ज़हर-ख़ंद चुप हो जाओ न जाने कौन से पत्थर यहाँ जलाली हों