मंज़र-ए-चश्म जो पुर-आब हुआ जाता है चमन-ए-दिल मिरा शादाब हुआ जाता है वही क़तरा जो कभी कुंज-ए-सर-ए-चश्म में था अब जो फैला है तो सैलाब हुआ जाता है एक एहसास था जो ग़म से दबा रहता था साज़-ए-ग़म का वही मिज़राब हुआ जाता है उस की पलकों पे जो चमका था सितारा कोई देखते देखते महताब हुआ जाता है वो जो शीरीं-दहन इस शहर में आया है मिरे उस का बोला हुआ शहदाब हुआ जाता है मुझ को मालूम है गिर्दाब-ए-नज़र का धोका जो भी अहमक़ है वो बेताब हुआ जाता है