मंज़रों के दरमियाँ मंज़र बनाना चाहिए रहनवर्द-ए-शौक़ को रस्ता दिखाना चाहिए अपने सारे रास्ते अंदर की जानिब मोड़ कर मंज़िलों का इक निशाँ बाहर बनाना चाहिए सोचना ये है कि उस की जुस्तुजू होने तलक साथ अपने ख़ुद रहें हम या ज़माना चाहिए तेरी मेरी दास्ताँ इतनी ज़रूरी तो नहीं दुनिया को कहने की ख़ातिर बस फ़साना चाहिए फूल की पत्ती पे लिक्खूँ नज़्म जैसी इक दुआ हाथ उठाने के लिए मुझ को बहाना चाहिए वस्ल की कोई निशानी हिज्र के बाहम रहे अब के सादा हाथ पर मेहंदी लगाना चाहिए फूल ख़ुशबू रंग जुगनू रौशनी के वास्ते घर की दीवारों में इक रौज़न बनाना चाहिए शाम को वापस पलटते ताएरों को देख कर सोचती हूँ लौट कर अब घर भी जाना चाहिए