मंज़रों की भीड़ ऐसी तो कभी देखी न थी गाँव अच्छा था मगर उस में कोई लड़की न थी रूह के अंदर ख़ला है ये मुझे मालूम था खोखला है जिस्म भी इस की ख़बर पहुँची न थी हाथ थामा है सदा के वास्ते वैसे मगर साथ उस का छोड़ने में कुछ बुराई भी न थी उन दिनों भी दर्द का साया मिरे हम-राह था जब धुआँ बन कर वो मेरे ज़ेहन पर छाई न थी जज़्ब हो जाने का क़िस्सा ख़ुद से भी मंसूब कर भूल मेरी थी अगर तू भी कोई देवी न थी रंग पक्का हो चला था याद आता है मगर धूप मेरे जिस्म पर तब ठीक से भीगी न थी ख़्वाहिशों का वो जज़ीरा भी तो आख़िर बह गया ख़ौफ़-ओ-ख़तरा की जहाँ पर कोई आबादी न थी