साया-ए-ज़ुल्फ़ नहीं शोला-ए-रुख़्सार नहीं क्या तिरे शहर में सरमाया-ए-दीदार नहीं वक़्त पड़ जाए तो जाँ से भी गुज़र जाएँगे हम दिवाने हैं मोहब्बत के अदाकार नहीं क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं किस लिए अपनी ख़ताओं पे रहें शर्मिंदा हम ख़ुदा के हैं ज़माने के गुनहगार नहीं सुर्ख़-रू हो के निकलना तो बहुत मुश्किल है दस्त-ए-क़ातिल में यहाँ साज़ है तलवार नहीं मोल क्या ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-जाँ का मिलेगा 'कामिल' शाख़-ए-गुल का भी यहाँ कोई ख़रीदार नहीं