मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते तुम अगर ना-गहाँ नहीं मिलते आशियाने का रंज कौन करे चार तिनके कहाँ नहीं मिलते दास्तानें हज़ार मिलती हैं साहिब-ए-दास्ताँ नहीं मिलते यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं मिलने वाले कहाँ नहीं मिलते इंक़िलाब-ए-जहाँ अरे तौबा हम जहाँ थे वहाँ नहीं मिलते दोस्तों की कमी नहीं हमदम ऐसे दुश्मन कहाँ नहीं मिलते जिन को मंज़िल सलाम करती थी आज वो कारवाँ नहीं मिलते शाख़-ए-गुल पर जो झूमते थे 'क़मर' आज वो आशियाँ नहीं मिलते