अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे जो अर्ज़-ए-हाल ब-तर्ज़-ए-निगाह-ए-यार करे बहुत ही तल्ख़-नवा हूँ मगर अज़ीज़-ए-वतन मैं क्या करूँ जो तिरा दर्द बे-क़रार करे क़दम को फ़ैज़-ए-जुनूँ से वो हौसला है नसीब जो ख़ार-ए-राह को भी शम-ए-रहगुज़ार करे जगाएँ हम-सफ़रों को उठाएँ परचम-ए-शौक़ न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे मिसाल मिलती है कितनों की उस दिवाने से चमन से दूर जो बैठा ग़म-ए-बहार करे दयार-ए-जौर में रस्ता है इक यही वर्ना किसे पसंद है ऐ दिल कि सैर-दार करे ख़ुदा करे ग़म-ए-गीती का पेच-ओ-ताब ऐ दोस्त कुछ और भी तिरी ज़ुल्फ़ों को ताबदार करे सितम कि तेग़-ए-क़लम दें उसे जो ऐ 'मजरूह' ग़ज़ल को क़त्ल करे नग़्मे को शिकार करे