मंज़ूर है नापना कमर का पैमाना बनाइए नज़र का था शाम से दग़दग़ा सहर का धड़का ही लगा रहा गजर का सीने में से कुछ आई आवाज़ फूटा कोई आबला जिगर का आँसू पूँछेंगे कब तक अहबाब टपका न रुकेगा चश्म-ए-तर का दिल ही तो है क्या अजब बहल जाए कुछ ज़िक्र करो इधर-उधर का क्यूँ ज़ुल्फ़ दराज़ खोलते हो क्या ख़ौफ़ तुम्हें नहीं कमर का कुछ बे-अदबी हुई मुक़र्रर सीना बेधा गया घर का तन्हा नहीं गोशा-ए-क़फ़स भी झगड़ा है साथ बाल-ओ-पर का मुहताज-ए-कफ़न नहीं है बुलबुल पर्दा काफ़ी है बाल-ओ-पर का रहते नहीं एक दम किसी जा बतलाएँ निशान-ए-ख़ाक घर का क्या क्या हम ने न ख़ाक उड़ाई पाया न ग़ुबार तेरे दर का हो आप के कान तक रसाई अल्लाह ये मर्तबा घर का ऐ दिल कुंज-ए-मज़ार देखा पहला ये मक़ाम है सफ़र का याक़ूत कहाँ मिरे धुन में टुकड़ा होगा कोई जिगर का रुख़्सत रुख़्सत जो कह रहे हो ऐ जान-ए-ख़याल है किधर का जब तक है कुछ हयात बाक़ी रस्ता देखेंगे नामा-बर का आँखों में ख़याल और ही है जल्वा किया देखिए क़मर का आराम कहाँ नसीब हम को खटका दरपेश है सफ़र का पहुँचे मिरे हाथ तक तो फ़स्साद मुँह लाल करूँगा नेश्तर का दौड़े लेने क़दम अजल के धोका हुआ यार की ख़बर का ठहरो लाशा उठे तो जाना झगड़ा है और दो पहर का क्यूँ आए 'नसीम' नींद हम को सर रख के ज़मीं पे यार सरका