मानूस हो गए हैं सितम पेशगी से हम अब क्या करें करम का तक़ाज़ा किसी से हम इस से तो अपने हक़ में अँधेरा ही ख़ूब था बे-नूर हो गए हैं नई रौशनी से हम आख़िर सर-ए-नियाज़ झुकाएँ तो किस तरह ना-आश्ना हैं रस्म-ओ-रह-ए-बंदगी से हम तस्कीन-ए-ज़ौक़ के लिए मग़्ज़-ए-सुख़न है शर्त आसूदा-ए-ग़ज़ल न हुए नग़्मगी से हम हद्द-ए-अदब में रह के 'मुनव्वर' हो गुफ़्तुगू मोमिन के मुँह न आएँ सुख़न-गुस्तरी से हम