दिल से न वही और हैं 'मंज़र' न हमीं और ये वक़्त है जो हम हैं कहीं और वो कहीं और हँस कर नहीं अब रूठ के इक बार नहीं और ग़ुस्सा करो ग़ुस्सा करो बन जाओ हसीं और सब वहम था दुनिया थी फ़लक था न ज़मीं और जब आईना देखा तो नज़र आए हमीं और हमीं और मेरा तो सलाम उस को बहार-ए-दर-ए-जानाँ तुझ से अगर अच्छी कोई जन्नत है कहीं और इक़रार से इंकार के अंदाज़ हैं दिलकश तुम यूँ ही कहे जाओ नहीं और नहीं और वा'दों में तिरे हो रही है जितनी भी ताख़ीर होता चला जाता है मुझे उतना यक़ीं और मालिक मुझे रुस्वाई-ए-महशर से बचा ले देना हों जो दे ले वो सज़ाएँ भी यहीं और टूटे न मगर सिलसिला-ए-दौर-ए-मोहब्बत मुझ को न पिलाओ तो पिए जाओ तुम्हीं और ऐ लखनऊ के फूलो न 'मंज़र' को सताओ घबरा के चला जाए न बे-चारा कहीं और