मुद्दत के बा'द ऐसी सुनाई ख़बर मुझे मैं नामा-बर को देखता हूँ नामा-बर मुझे महफ़िल पे अपनी नाज़ तुम्हें मौत पर मुझे बस जाओ अब न देखना कल से इधर मुझे सौ रातें एक हिज्र की शब में तमाम कीं जब आँख बंद की नज़र आई सहर मुझे सादा वरक़ जवाब में इक ला के दे गया दीवाना जानता है मिरा नामा-बर मुझे हाँ थी कभी तमीज़ सियाह-ओ-सफ़ेद में और अब तो जैसी शाम है वैसी सहर मुझे नावक कमाँ में जोड़ के कहते हैं नाज़ से हाँ कौन कौन कहता है बेदाद-गर मुझे 'मंज़र' ये शोर-ए-नौहा ग़म-ए-नज़्अ' में है क्यूँ नाकामियों को रोते हैं या चारा-गर मुझे