मर्ग-ए-आशिक़ पर फ़रिश्ता मौत का बदनाम था वो हँसी रोके हुए बैठा था जिस का काम था ख़ून-ए-नाहक़ से मुकरने का कहाँ हंगाम था तीर जितने दिल से निकले सब पर उन का नाम था क्या बताई जाएँ शाम-ए-हिज्र की मजबूरियाँ दिल हमारा था न हम दिल के अजब हंगाम था हिज्र की दो करवटों ने कर दिया क़िस्सा तमाम दर्द-ए-दिल आग़ाज़ था दर्द-ए-जिगर अंजाम था ऐसे वक़्तों में कलेजा ग़म से हो जाता है शक़ सब्र अपने दिल की मय्यत पर हमारा काम था अहल-ए-महशर देख लूँ क़ातिल को तो पहचान लूँ भोली भोली शक्ल थी और कुछ भला सा साम था अब कोई दीवाना कहता है कोई वहशी मुझे आप की उल्फ़त से पहले मेरा 'मंज़र' नाम था