मर कर भी छूटती नहीं अक्सर लगी हुई होती बहुत बरी है मुक़र्रर लगी हुई इस शोला-रू को लाग है हर दिल से क्या बुझे है सब घरों में आग बराबर लगी हुई दिल की ख़बर जो आती है हर दम ज़बान पर रहती है दम की डाक बराबर लगी हुई सोज़-ए-दरूँ ने फूँक दिया जिस्म ओ जान ओ दिल इक आग है कलेजा के अंदर लगी हुई भूले हैं ज़ौक़-ए-मय से 'मज़ाक़' अपनी जाँ तो क्या दिल से है याद-ए-साक़ी-ए-कौसर लगी हुई