मर कर मरीज़-ए-ग़म की वो हालत नहीं रही यानी वो इज़्तिराब की सूरत नहीं रही हर लम्हा-ए-हयात रहा वक़्फ़ कार-ए-शौक़ मरने की उम्र भर मुझे फ़ुर्सत नहीं रही एक नाला-ए-ख़मोश मुसलसल है और हम यादश-ब-ख़ैर ज़ब्त की ताक़त नहीं रही वो अहद-ए-दिल-फ़रेबी-ए-तासीर अब कहाँ मुद्दत से आह आह की हसरत नहीं रही दिल और हवा-ए-सिलसिला-ए-जम्बानी-ए-नशात क्यूँ पास-ए-वज़-ए-ग़म तुझे ग़ैरत नहीं रही हर बे-गुनाह से वादा-ए-बख़ि़्शश है रोज़-ए-हश्र गोया गुनाह की भी ज़रूरत नहीं रही ऐ अर्ज़-ए-शौक़ मुज़्दा कि दिल चाक हो गया तकलीफ़ पर्दा-दारी-ए-हसरत नहीं रही पथरा गई थी आँख मगर बंद तो न थी अब ये भी इंतिज़ार की सूरत नहीं रही इबरत ने बेकसी का निशाँ भी मिटा दिया उड़ती थी जिस पे ख़ाक वो तुर्बत नहीं रही महशर में भी वो अहद-ए-वफ़ा से मुकर गए जिस की ख़ुशी थी अब वो क़यामत नहीं रही किस मुँह से ग़म के ज़ब्त का दावा करे कोई ताक़त ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-राहत नहीं रही 'फ़ानी' उम्मीद-ए-मर्ग ने भी दे दिया जवाब जीने की हिज्र में कोई सूरत नहीं रही