मरज़-ए-इश्क़ से अच्छा नहीं इंसाँ होता ये वही दर्द है जिस का नहीं दरमाँ होता दिल-ए-वहशत-ज़दा क्यों ज़ुल्फ़ का ख़्वाहाँ होता एक तो था ही सिड़ी और परेशाँ होता ऐ फ़लक क्या हुआ गर हँस लिए दो एक घड़ी हम तो जब जानते पूरा कोई अरमाँ होता और कुछ रोज़ों जो मिन्नत की न बढ़ती बेड़ी तेरे दीवानों से मामूर बयाबाँ होता ये न समझे शब-ए-वा'दा है क़यामत होगी क्या जब आते कि यहाँ दफ़्न का सामाँ होता सहर-ए-हिज्र जनाज़ा ही निकलता घर से मैं मुसीबत का न ख़ूगर जो मिरी जाँ होता ज़ुल्म कैसा ही पस-ए-मर्ग वो करते लेकिन लाश होती मिरी और कूचा-ए-जानाँ होता मुसहफ़-ए-रुख़ में उसी के ये सिफ़त है वल्लाह दो वर्क़ का भी है आया कहीं क़ुरआँ होता आज-कल ग़ैर से है तुझ को जो ऐ ज़ुल्म-पसंद काश वो रिश्ता-ए-उल्फ़त तिरा पैमाँ होता इस गिरानी पे तो मजमा है ये दीवानों का क़हर था ज़ुल्फ़ का सौदा अगर अर्ज़ां होता वार बस एक ही सीने पे लगाया ऐ गुल इतने चरके तो लगाता कि गुलिस्ताँ होता 'बज़्म' मद्दाह भी है आप का और ज़ाकिर भी रहम क्यों इस पे नहीं ऐ शह-ए-मर्दां होता