मरे दिल बीच नक़्श-ए-नाज़नीं है मगर ये दिल नहीं यारो नगीं है कमर पर तेरी उस का दिल हुआ महव तिरा आशिक़ बहुत बारीक-बीं है जो कहिए उस के हक़ में कम है बे-शक परी है हूर है रूह-उल-अमीं है ग़ुलाम उस के हैं सारे अब सिरीजन नगर में हुस्न के कुर्सी-नशीं है नहीं अब जग में वैसा और पीतम सबी ख़ुश-सूरताँ सूँ नाज़नीं है मुझे है मोशगाफ़ी में महारत जो नित दिल महव ख़त्त-ए-अम्बरीं है नज़र कर लुत्फ़ की ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ तिरा 'फ़ाएज़' ग़ुलाम-ए-कम-तरीं है