मरहला शौक़ का है लफ़्ज़-ओ-बयाँ से आगे एक शो'ला है कोई बर्क़-ए-तपाँ से आगे अपनी हैरत का तो है इल्म यक़ीं से पहले तू बता मुझ को है क्या मेरे गुमाँ से आगे हाँ मिरा शौक़-लक़ा तेरी इनायत ही सही क्या मिला मुझ को मगर इज्ज़-ए-बयाँ से आगे क्यूँ बना डाला इसे मेरी निगाहों का ग़ुरूर तेरा जल्वा है अगर हुस्न-ए-बुताँ से आगे अपनी ख़ल्वत से कभी तू भी न बाहर झाँका मुझ को जाने न दिया मेरे मकाँ से आगे कुछ नहीं इस के सिवा अपनी निगाहों की बिसात कुछ दिखाई न दिया सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे फ़हम-ओ-इदराक पे भी मेरे है पहरा तेरा और तू सारे मकाँ सारे ज़माँ से आगे इम्तिहाँ ख़त्म नहीं होता इसी पर 'तरज़ी' जू-ए-ख़ूँ लानी है इक अश्क-ए-रवाँ से आगे