मरहम-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर हो जाए एक ऐसी भी नज़र हो जाए इक इशारा भी अगर हो जाए इस शब-ए-ग़म की सहर हो जाए सुब्ह ये फ़िक्र कि हो जाए शाम शाम को ये कि सहर हो जाए हो न इतना भी परेशाँ कोई कि ज़माने को ख़बर हो जाए यूँ तो जो कुछ भी किसी पर गुज़रे दिल न अफ़्सुर्दा मगर हो जाए फ़िक्र-ए-फ़र्दा भी करेंगे 'हैरत' पहले ये शब तो बसर हो जाए