मरकज़-ए-हर्फ़ तकल्लुम था बयाँ तक न हुआ इक तिरा ज़िक्र था जो मेरी ज़बाँ तक न हुआ शौक़-ए-परवाज़ में पर टूट गए ताइर के वो यक़ीं था कि मिरे दिल को गुमाँ तक न हुआ क्या अजब तुर्फ़ा-तमाशा है तिरी बस्ती में मैं ने इक उम्र गुज़ारी है मकाँ तक न हुआ जिस के होने पे न होने का गुमाँ होता है वही गुलदस्ता-ए-जाँ सर्फ़-ए-ख़िज़ाँ तक न हुआ मैं ने दुनिया तिरी तख़्लीक़ पे सोचा था बहुत राज़-ए-गुम-गश्ता-ए-महबूब अयाँ तक न हुआ बस कि अब ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-सोज़-ओ-गुदाज़ दिल मिरा जल भी गया और धुआँ तक न हुआ ज़िंदगी हर्फ़-ए-फ़ना के लिए तहरीक 'क़मर' रूह बाक़ी रही और कोई ज़ियाँ तक न हुआ