मरकज़ से कहीं दूर किसी राहगुज़र में

मरकज़ से कहीं दूर किसी राहगुज़र में
पाओगे जो मिलता नहीं भूले से भी घर में

वो रम्ज़ तलब जिस की है मेहराब-ए-हरम में
दिल में है तो क्या ढूँढिए दीवार में दर में

वो बात पुरानी हुई कब के हैं वो क़िस्से
रहता था शब-ओ-रोज़ जो सौदा कोई सर में

क्या शोरिश-ए-दौराँ के मुक़ाबिल नहीं रहते
डरते नहीं मौजों से जो पलते हैं भँवर हैं

दम लेने को ठहरे हैं तो क्या हौसला छूटा
बाक़ी है अभी काविश-ए-परवाज़ तो पर में

अब ज़ाद-ए-सफ़र क्या है ब-जुज़ आबला-पाई
मंज़िल तो ख़ुदा जाने मगर हम हैं सफ़र में

हसरत कोई बाक़ी नहीं टूटे हुए दिल में
रहता है कहीं कोई भी वीरान खंडर में

तब वक़्त कोई और था शामें थीं सहर-गूँ
अब शब में कोई लुत्फ़ है 'रिज़वाँ' न सहर में


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