मा'रके कुछ ज़िंदगी के यूँ भी सर करता रहा जो मुख़ालिफ़ थे मैं उन के दिल में घर करता रहा यूँ मैं अपनी फ़िक्र-ए-अहसन मो'तबर करता रहा दुश्मनों की सब ख़ताएँ दरगुज़र करता रहा गर मोहब्बत जुर्म है तो दोस्तो तस्लीम है मैं ख़ताएँ इस तरह की उम्र भर करता रहा ज़िंदगी की धूप का एहसास क्या होगा उसे चाँद तारों की जो छाँव में सफ़र करता रहा शहर के बाहर भी उस के नाम की अब धूम है ज़िंदगी को जो फ़क़ीराना बसर करता रहा जो मेरे अपनों में था उस ने तो कुछ सोचा नहीं ग़ैर तो फिर ग़ैर था ज़ेर-ओ-ज़बर करता रहा ज़िंदगी से जब ज़ियादा मौत थी मेरे क़रीब मरहले ऐसे भी तय मैं बे-ख़तर करता रहा 'शौक़' ये माना बहुत दुश्वार था शे'री सफ़र फिर भी फ़नकारों पे तेरा फ़न असर करता रहा