मसाफ़त मंज़िलों की जब हमारे सर पे रक्खी थी फ़लक काँधों पे रक्खा था ज़मीं ठोकर पे रक्खी थी हमारे प्यार की शोहरत हुई थी यूँ ज़माने में वरक़ सड़कों पे बिखरे थे कहानी घर पे रक्खी थी किया है हर्फ़-ए-हक़ हम ने अदा कुछ इस क़रीने से नज़र क़ातिल पे रक्खी थी ज़बाँ ख़ंजर पे रक्खी थी तुझे पाने की उलझन में कुछ ऐसे दिन भी गुज़रे हैं बदन शबनम से जलता था क़ज़ा बिस्तर पे रक्खी थी