मसाफ़त-ए-शब-ए-हिज्राँ तवील लिखते रहे मिले जो दर्द उन्हें संग-ए-मील लिखते रहे हिकायतें ही नहीं लिक्खीं आग की हम ने हक़ीक़तें भी ब-रंग-ए-ख़लील लिखते रहे जो क़ल्ब-ओ-जाँ में है ख़ुश्बू किसी की ज़ुल्फ़ों की उसी को अपनी मता-ए-जलील लिखते रहे रही ये आस कि सैराब होगी किश्त-ए-हयात सो जौहड़ों को भी दरिया-ए-नील लिखते रहे निकल सकी न वहाँ एक बूँद भी 'फ़ाख़िर' तमाम-उम्र जिन आँखों को झील लिखते रहे