मसअला ये भी ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ आसाँ हो गया ज़ीस्त को अंदाज़ा-ए-ग़म-हा-ए-दौराँ हो गया दिल में जब एहसास का शो'ला फ़रोज़ाँ हो गया नूर अफ़्शाँ हर चराग़-ए-बज़्म-ए-इम्काँ हो गया तेरे लहराते ही ऐ जान-ए-तरब रूह-ए-नशात ज़िंदगी रक़्साँ हुई आलम ग़ज़ल-ख़्वाँ हो गया इस तरह मेरी बहार-ए-ज़िंदगी रुख़्सत हुई दिल उजड़ कर रह गया आग़ोश वीराँ हो गया हो गई जब ज़ख़्मा-ज़न दर्द-ए-मोहब्बत की ख़लिश हर नफ़स इक नग़्मा-ए-साज़-ए-रग-ए-जाँ हो गया अंजुम-अफ़्शाँ हो गई जब मेरी चश्म-ए-अश्क-बार दर्द की तीरा फ़ज़ाओं में चराग़ाँ हो गया जिस के आईने में लाखों रंग थे जल्वा-फ़गन ख़्वाब सा वो लम्हा-ए-ऐश-ए-फ़रावाँ हो गया मैं ने हर बुत की परस्तिश की कुछ इस अंदाज़ से कुफ़्र मेरा लाएक़-ए-अर्बाब-ए-ईमाँ हो गया आह मुज़्तर अब वो जल्वे हैं न वो रानाइयाँ हर नज़ारा साया-ए-उम्र-ए-गुरेज़ाँ हो गया