मशहूर हैं दिनों की मिरे बे-क़रारियाँ जाती हैं ला-मकाँ को दिल-ए-शब की ज़ारियाँ चेहरे पे जैसे ज़ख़्म है नाख़ुन का हर ख़राश अब दीदनी हुई हैं मिरी दस्त-कारीयाँ सौ बार हम ने गुल के गए पर चमन के बीच भर दी हैं आब-ए-चश्म से रातों को कियारियाँ कुश्ते की उस के ख़ाक भरे जिस्म-ए-ज़ार पर ख़ाली नहीं हैं लुत्फ़ से लोहू की धारियाँ तुर्बत से आशिक़ों के न उठा कभू ग़ुबार जी से गए वले न गईं राज़-दारीयाँ अब किस किस अपनी ख़्वाहिश-ए-मुर्दा को रोइए थीं हम को इस से सैंकड़ों उम्मीदवारियाँ पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ क्या जानते थे ऐसे दिन आ जाएँगे शिताब रोते गज़रतियाँ हैं हमें रातें सारियाँ गुल ने हज़ार रंग-ए-सुख़न सर किया वले दिल से गईं न बातें तिरी प्यारी प्यारियाँ जाओगे भूल अहद को फ़रहाद-ओ-क़ैस के गर पहुँचें हम शिकस्ता-दिलों की भी बारियां बच जाता एक रात जो कट जाती और 'मीर' काटें थीं कोहकन ने बहुत रातें भारीयाँ