मसीह-ए-वक़्त भी देखे है दीदा-ए-नम से ये कैसा ज़ख़्म है यारो ख़फ़ा है मरहम से कोई ख़याल कोई याद कोई तो एहसास मिला दे आज ज़रा आ के हम को ख़ुद हम से हमारा जाम-ए-सिफ़ालीं ही फिर ग़नीमत था मिली शराब भला किस को साग़र-ए-जम से हवा भी तेज़ है यूरिश भी है अंधेरों की जलाए मिशअलें बैठे हैं लोग बरहम से ग़मों की आँच में तप कर ही फ़न निखरता है ये शम्अ जलती है 'जावेद' चश्म-ए-पुर-नम से