मसील-ए-सैल-ए-रवाँ दश्त-ओ-जू में गुज़री है हयात हिज्र के तौक़-ए-गुलू में गुज़री है वही तो मेरी मता-ए-हयात है जानाँ जो एक साँस तिरी जुस्तुजू में गुज़री है गुलों को दश्त की वीरानगी नहीं मालूम कि उन की ज़ीस्त फ़क़त रंग-ओ-बू में गुज़री है किया था दामन-ए-दिल चाक बे-रुख़ी ने तिरी हयात सारी ही कार-ए-रफ़ू में गुज़री है तमाम उम्र की हसरत का दे गई तोहफ़ा वो इक घड़ी जो तिरी आरज़ू में गुज़री है वो एक बात जो कहनी थी कह नहीं पाए अगरचे वस्ल की शब गुफ़्तुगू में गुज़री है रही है गिर्या-कुनाँ चश्म-ए-ना-रसा दाइम हयात चेहरे की सारी वुज़ू में गुज़री है