मस्लहत का चार-सू तेज़ाब है कौन किस के वास्ते बेताब है आप उल्फ़त से कोई सैराब है और कोई माही-ए-बे-आब है चश्म-ए-क़ातिल आज जो पुर-आब है वो मेरी तहज़ीब का इक बाब है ताक़-ए-निस्याँ पर धरी हैं ख़्वाहिशें दिल कलाम-ए-पाक की मेहराब है मौज-ए-ग़म पहुँचें-गी उन तक बिल-यक़ीं ग़म के दरिया में अगर सैलाब है हिज्र में भी है वफ़ा की रौशनी आबरू-ए-ग़म है रुख़ पुर-आब है चाँदनी से उस की रौशन रोज़-ओ-शब आसमान-ए-दिल का जो महताब है तिश्नगी के ख़ून ने सींचा उसे गुलशन-ए-दीं दाइमी शादाब है ज़ात का झगड़ा जहाँ से मिट गया जागती आँखों का 'मख़फ़ी' ख़्वाब है