मसरूफ़ रहगुज़र पे चला जा रहा था मैं फिर क्यूँ लगा कि सब से जुदा जा रहा था मैं ता'मीर-ए-ज़ात ही में लगी ज़िंदगी तमाम ख़ालिक़ बना रहा था बना जा रहा था मैं हासिल थीं जिन को राहतें वो भी फ़ना हुए क्यूँ अपनी मुफ़्लिसी से डरा जा रहा था मैं दरिया-ए-ज़ीस्त की यही मंज़िल थी आख़िरी इक बहर-ए-बे-कराँ में गिरा जा रहा था मैं समझा था आइने में मिरा अक्स ही नहीं ज़ाहिर था और सब से छुपा जा रहा था मैं पहले तो कू-ए-यार की फिर दार की तलब दलदल में ख़्वाहिशों की धँसा जा रहा था मैं मैं गर्द-ए-राह था मगर ए'जाज़ देखिए हर कारवाँ के साथ उड़ा जा रहा था मैं रुकने में डर ये था कि तवाज़ुन बिगड़ न जाए 'आदिल' इसी गुमाँ में चला जा रहा था मैं