मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम क्यूँ तंग होंगे कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम कोह-ए-अलम उठा ही लिया राह-ए-इश्क़ में अपनी ख़ुशी को छोड़ के तेरी ख़ुशी से हम लब-हा-ए-यार ने तो गुलिस्ताँ पिरो लिए ख़ुशबू जो पा रहे हैं तिरी पंखुड़ी से हम अपनी बहार देख के हैरान रह गए वाक़िफ़ हुए हैं जब से रुमूज़-ए-ख़ुदी से हम मेरी जबीन-ए-शौक़ को दर उन का मिल गया उठ कर कहाँ को जाएँ दर-ए-बंदगी से हम राह-ए-वफ़ा में जी के मरे मर के भी जिए खेला उसी तरह से किए ज़िंदगी से हम दामन को तार-तार किया मंज़िलें मिलीं आएँगे अब न होश में दीवानगी से हम ख़ुद दर्द बन गया मिरा दर्मान-ए-ज़िंदगी इतना क़रीब हो गए कुछ दर्द ही से हम जो मक़्सद-ए-हयात को भूले वही कहें तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम 'वासिल' के दाग़-ए-दिल से है मंज़िल की रौशनी वर्ना निकल के आते भला तीरगी से हम