मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना जिस क़दर देखना उतना ही पशेमाँ होना सख़्त दुश्वार है आसान का आसाँ होना ख़ून-ए-फ़ुर्सत है यहाँ सर-ब-गरेबाँ होना तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला कि बयाबाँ को भी चाहे है बयाबाँ होना कूचा-ए-ग़ैर में क्यूँ कर न बनाऊँ घर को मेरी आबादी से आबाद है वीराँ होना ख़ाक-ए-वहशी से अगर रब्त है ठोकर को तिरी दौर-ए-दामन से नहीं दौर-ए-गरेबाँ होना न वो ख़ूँ ही है जिगर में न वो रोने का दिमाग़ मिल गया ख़ाक में हर अश्क का तूफ़ाँ होना जी का जी ही में रहा हर्फ़-ए-तमन्ना अफ़्सोस कहना कुछ आप ही और आप पशेमाँ होना दिल से अंदाज़-ए-शिकन ज़ुल्फ़ ने सब जम्अ' किए छेड़ कर उस को कहीं तू न परेशाँ होना तुझ को अरमान-ए-ख़राबी है जो ऐ देहली और सीख जा घर में मिरे रह के बयाबाँ होना दिल है इक क़तरा-ए-ख़ूँ जिस पे ये सीना ज़ोरी कुछ समझता ही नहीं हम-सफ़-ए-मिज़्गाँ होना मुझ में कुछ ताब हो ऐ जाँ तो मैं बे-ताब रहूँ वर्ना दुश्वार है इस राज़ का पिन्हाँ होना याद-ए-मिज़्गाँ से इधर ज़ख़्म-ए-जिगर पर खाना और उधर शोरिश-ए-दिल से नमक-अफ़्शाँ होना आज वो वक़्त 'क़लक़' पर है कि जूँ इब्न-ए-ख़लील ग़ैर तस्लीम नहीं क़त्ल का आसाँ होना