मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का पाबंद ये फ़क़ीर नहीं संग-ओ-ख़िश्त का सरसब्ज़ हूँ जो आप दिखा दीजे ख़त-ए-सब्ज़ कुश्तों को खेत में अभी आलम हो किश्त का उस हूर की जो गुल्शन-ए-आरिज़ की याद थी देखा किया फ़िराक़ में आलम बहिश्त का क्या मुंशी-ए-अज़ल की ये सनअत है देखना माहिर नहीं किसी की कोई सरनविश्त का नादान ए'तिराज़ है साने पे ग़ौर कर बेजा है इम्तियाज़ यहाँ ख़ूब ओ ज़िश्त का ऐ 'बर्क़' सैर करते हैं हम तो जहान की हर कूचा-ए-सनम है नमूना बहिश्त का