मौज-दर-मौज वो आवाज़ सुनाई देगी कान गौहर ही नहीं सारी ख़ुदाई देगी वो जसारत पे तिरी आग-बगूला होगी काँपते हाथों में फिर दस्त-ए-हिनाई देगी ये ज़मीं देखने में सब्ज़ नज़र आती है दो क़दम और चलो सोख़्ता-पाई देगी आख़िरश दार पे गर्दन में पड़ेगी रस्सी ख़ुद ही आएगी तिरे हक़ में सफ़ाई देगी बहर-ए-अह्मर की हवा है इसे क्यों रोकते हो नंगे अश्जार को मल्बूस तिलाई देगी ये न समझो उसी पर ख़त्म हुए उस के सितम ले के बाँहों में तुम्हें दाग़-ए-जुदाई देगी तीरा ज़िंदाँ में रहेगा दम-ए-आख़िर बाक़ी आएगी चाँदनी के रथ पे रिहाई देगी आबिदा थी इसी तारीक गली में डूबी सुब्ह हो जाए सर-ए-शाख़ दिखाई देगी